आगरा के संगीत प्रचारक
आगरा के संगीत प्रचारक/विजय राघव आचार्य
मैं अपनी बात 1940 से आरंभ करता हूं । आगरा शास्त्रीय संगीत का मजबूत गढ़ था । मुगल दरबार में कई कलाकारों को प्रश्रय मिला हुआ था और यहां कश्मीरी बाजार के पास एक पूरी बस्ती कलाकारों की थी। तब यहां शास्त्रीय संगीत का वातावरण था और उसे सुनने वाले भी खूब थे।
1940 के दशक में यह सब कुछ खत्म होता जा रहा था। मुगल दरबार, राजा, रजवाड़े सभी समाप्त होते जा रहे थे। इस कारण आगरा के कलाकारों को प्रश्रय मिलना बंद हो गया और कलाकारों के सामने रोजी-रोटी की समस्या भी उत्पन्न हो गई। ऐसी स्थिति में ज्यादातर कलाकारों ने अन्य रोजगार के लिए या फिर प्रश्रय के लिए दूसरे स्थानों पर जाना शुरू कर दिया और देखते ही देखते हैं आगरा शास्त्रीय संगीत से शून्य हो गया। आगरा घराने के कलाकार उस्ताद फैयाज खान साहब भी आगरा छोड़कर बड़ौदा चले गए।
आगरा में शास्त्रीय संगीत की लंबी परंपरा रही है लेकिन 40 के दशक जाते जाते आगरा में संगीत सीखना एक मुश्किल कार्य था। और तब शास्त्री संगीत को आगरा में जीवित बनाए रखने का कार्य कुछ लोगों ने किया जिसके कारण आज आगरा पुनः अपने वैभव पर आ गया है।
आगरा में शास्त्रीय संगीत का प्रचार प्रसार करने हैं और उसे पुनः स्थापित करने का मुख्य क्षेत्र ग्वालियर घराने के उन गायकों को आता है जिन्होंने माधव संगीत विद्यालय ग्वालियर से शिक्षा लेकर आगरा में संगीत का प्रचार प्रसार करने का काम किया।
ऐसे लोगों में पंडित गोपाल लक्ष्मण गुने पंडित सीताराम व्यव हारे, पंडित रघुनाथ तालेगांवकर जी, पंडित बीपी मोदक जी, पंडित पुरुषोत्तम माधव पालखे जी, पंडित लक्ष्मण गुने और सप्त ऋषि जी का नाम उल्लेखनीय है। इसके अतिरिक्त ग्वालियर घराने के ही गायक विशंभर भट्ट और उनके शिष्य पंडित श्रीनिवासन आचार्य, पंडित रामदास शर्मा,, रघुवीर सिंह भरद्वाज, अजय मुखर्जी , भी उल्लेखनीय नाम है , जिन्होंने आगरा में संगीत का प्रचार प्रसार करने और उसके शिक्षण व्यवस्था में अभूतपूर्व योगदान दिया।
इस दशक में और भी बहुत सारे कलाकार थे जिन्होंने शास्त्रीय संगीत की विधा में प्रचार-प्रसार करने और शिक्षा देने का कार्य किया। पंडित श्याम लाल जी, पंडित लल्लू सिंह जी. पंडित रमेश पारेख, मास्टर फकीर चंद जी. पंडित सत्यनारायण वशिष्ठ, प्रभात वशिष्ठ, पंडित सुरेश हरिदास जी, लालजी प्रभाकर, केशव तलेगांव कर, देवेंद्र वर्मा ,पंडित तुलसीदास जी, मनीष प्रभाकर , विलास पालखे, मनोज शर्मा , उस्ताद मम्मे खा पंडित आनंद हरिदास एक अच्छे तबला वादक के रूप में जाने जाते हैं। जिन्होंने कई वर्षों तक आगरा में तबला वादक के रूप में कार्य किया और अनेक शिष्य तैयार किए ।संगीत गोष्ठियों और सम्मेलन में उनकी उपस्थिति उल्लेखनीय होती थी। उनकी शिष्य परंपरा में आज अनेक कलाकार स्थापित है।
पंडित सुनहरी लाल शर्मा हारमोनियम संगीतकार के रूप में विस्थापित कलाकार और शिक्षक थे। उनकी नातिन जौहरी सिस्टर्स कत्थक की स्थापित कलाकार थी।
बाबूलाल श्रीवास्तव की शिक्षा काजल शर्मा अब एक स्थापित कलाकार है, जो अब इंग्लैंड में रहती है और अंतर्राष्ट्रीय कलाकार है।
नृत्य के क्षेत्र में स्वर्गीय राय साहब का नाम उल्लेखनीय है। साठ के दशक में वे कत्थक सिखाने वाले कलाकार थे। बाग मुजफ्फर खां में उनका एक स्कूल चलता था जहां वह कथक डांस सिखाया करते थे। उसके बाद यह कार्य उनके शिष्य बाबूलाल श्रीवास्तव मैं भी किया और अनेक शिष्य तैयार किए जो अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी नृत्य प्रस्तुति देते हैं। 80 के दशक के बाद बाहर से कुछ और कथक नृत्य के कलाकार आगरा आए और उन्होंने भी कत्थक सिखाने का कार्य किया जिसमें मोंटू गिरी, उनके पुत्र तापस गिरी और पुत्री रेनू गिरी , रमन लाल धाकड़ और सूरज नटराज का नाम उल्लेखनीय है। आगरा के कुछ कलाकार ऐसे भी हैं जो कई विधाओं में पारंगत है। रघुनाथ जी ऐसे ही कलाकार हैं जो गायन वादन और नृत्य में परिपक्व है।वर्तमान में उपरोक्त कलाकारों के अनेक शिष्य कत्थक सिखाने का कार्य कर रहे हैं। आगरा में अब पिछले 10 वर्षों से कत्थक सिखाने का कार्य कई स्कूल कर रहे हैं और कथक के नए कलाकार भी सामने आ रहे ।
आगरा में सितार सिखाने और उसका प्रचार प्रसार करने में कुछ कलाकारों का नाम लिया जा सकता है। अजय खन्ना, जीवन सिंह, कल्याण लहरी,धनोदय प्रसाद श्रीवास्तव उर्फ बालो जी, सतीश मोहन भट्ट, राम सिंह और स्वामी जी (विष्णु उपाध्याय)को इसका श्रेय दिया जा सकता है, जो तब आगरा के स्थापित कलाकार थे।
बालोजी सूरदास थे और बैकुंठी देवी कॉलेज में कार्य करते थे। बाद में वे विदेश चले गए और वही बस गए। अब वह एक अंतर्राष्ट्रीय कलाकार के रूप में स्थापित है।
तबला वादक श्याम लाल जी के पुत्रों में रामस्वरूप प्रभाकर भी स्थापित कलाकार थे जो जलतरंग और संतूर बजाया करते थे।
अशोक करमाकर पंडित सीताराम जी के शिष्य हैं और वह वायलिन के स्थापित कलाकार हैं
आगरा में वायलिन बजाने वाले कलाकार दुर्लभ ही रहे ,वर्तमान में संदीप शर्मा वायलिन के स्थापित कलाकार हैं।
1950 के दशक में जो कलाकार ग्वालियर से आगरा आए थे उनमें से ज्यादातर स्कूल कॉलेज में अध्यापक के रूप में नियुक्त हुए थे। उन दिनों ज्यादातर स्कूलों में संगीत विषय अनिवार्य हुआ करता था इसलिए रोजगार मिलने के साथ-साथ वे संगीत का ट्यूशन भी किया करते थे। लेकिन पंडित गोपाल लक्ष्मण गुने जी और रघुनाथ तालेगाबकर जी ने स्कूल की भी स्थापना की। भारतीय संगीतालय और संगीत कला केंद्र की स्थापना 1950 के दशक में ही हो गई थी। जहां कोई भी आकर बहुत कम फीस मैं शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ले सकता था। इन दोनों संस्थानों का सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण योगदान आगरा में शास्त्रीय संगीत का प्रचार प्रसार करने और इसकी शिक्षा देने में रहा और पिछले 75 वर्षों से यह संस्थाएं निरंतर प्रचार प्रसार करने और कलाकार तैयार करने का कार्य कर रही है।
80 के दशक में कुछ और स्कूल भी आगरा में खोले गए,, जिनमें रावत पाड़ा स्थित चांदी वाले मंदिर में एक स्कूल था। वर्तमान में तो अब कई स्कूल आगरा में खुल गए हैं जो संगीत की शिक्षा दे रहे हैं। लेकिन ज्यादातर स्कूलों को भारतीय संगीतालय और संगीत कला केंद्र से सीखें विद्यार्थी ही संचालन कर रहे हैं।
आगरा में शास्त्रीय संगीत का प्रचार प्रसार करने और कलाकारों को प्रश्रय देने का कार्य भी कुछ संगीत प्रेमियों ने किया। जिनका उल्लेख करना जरूरी है। आगरा में गोकुलपुरा के रहने वाले रईस और संगीत प्रेमी मगनलाल नागर जी ने संगीत का प्रचार प्रसार करने और कलाकारों को प्रश्रय देने का कार्य किया। 50 और 60 के दशक में उनकी हवेली में संगीत गोष्ठियों चला करती थी जिसमें स्थानीय और बाहर के कलाकार आया करते थे। संगीत प्रेमियों की भारी भीड़ वहां उपस्थित रहती थी। वास्तव में उस समय यह स्थिति थी कि कलाकारों को सामने बैठकर ही सुना जा सकता था। तब रिकॉर्ड संगीत सुनने की कोई व्यवस्था नहीं थी। जिन्हें शास्त्रीय संगीत सुनना होता था वही इन गोष्ठियों मैं आया करते थे। यह संगीत गोष्टी सार्वजनिक हुआ करती थी। नागर जी स्वयं कलाकार नहीं थे लेकिन शास्त्रीय संगीत को बहुत अच्छी तरह समझते थे। जिन लोगों को कोई संगीत नहीं सिखाता था उन्हें वह मुफ्त में संगीत शिक्षा दिया करते थे।
1940 के दशक में पंडित भातखंडे जी
शास्त्रीय संगीत की परंपरा को लुप्त होने से बचाने के लिए महत्वपूर्ण कार्य कर रहे थे और उन्होंने कलाकारों से भी यह अनुरोध किया कि वे संगीत का प्रचार प्रसार करें और उसके प्रचारक बने।
उनके आव्हान पर आगरा में नियमित गोष्ठी या होने लगी। नागर जी की हवेली, बाग मुजफ्फर खां की पीली कोठी और महाराष्ट्र समाज इन गोष्ठियों का मुख्य केंद्र हुआ करता था। यहां 80 के दशक तक लगातार संगीत गोष्ठी या होती रही। बाद में सूर सदन माथुर वैश्य भवन खंडेलवाल भवन बन जाने पर फिर ज्यादा कार्यक्रम यहीं पर होने लगे क्योंकि श्रोताओं की संख्या काफी हो गई थी।
आगरा घराने के गायक अकील अहमद खान और शब्बीर अहमद खान का भी संगीत के प्रचार प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान रहा। यद्यपि इन्होंने अपना कोई स्कूल नहीं खोला लेकिन इन्होंने अपने अनेक शिष्य तैयार किए और साथ ही यह आगरा में होने वाली संगीत गोष्ठी और सम्मेलनों में निरंतर भाग लेते रहते थे और अपनी गायकी प्रस्तुत करते थे। इसी क्रम में पंडित सीताराम व्यवहारे, पुरुषोत्तम माधव पालखे , बी पी ओडक जी का नाम महत्वपूर्ण है जिन्होंने आगरा में अनेक शिष्य तैयार किए। संगीत गोष्ठियों और सम्मेलन में इनको सादर निमंत्रित किया जाता था।
आगरा में संगीत प्रचार प्रसार के लिए केशव तालेगांवकर का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा जिन्होंने अपने पिता रघुनाथ तलेगांव कर जी के साथ कदम ताल मिलाते हुए संगीत प्रचार प्रसार के लिए कार्य किया।
1970 के दशक में आगरा में कई स्कूलों में और कॉलेज में संगीत की स्नातक स्तर तक संगीत की शिक्षा दी जाने लगी। लेकिन इसका एक पहलू और भी था कि ज्यादातर संगीत विषय अब केवल लड़कियों के स्कूल में ही रह गया था। लड़कों के लिए केवल आगरा के संगीत स्कूल और कलाकार ही एकमात्र विकल्प था।
70 के दशक में इन स्कूलों में अनेक कलाकारों को नियुक्ति मिली थी जिनमें दयालबाग यूनिवर्सिटी में डॉक्टर सत्यवान शर्मा की नियुक्ति हुई थी। डॉ सत्यपाल शर्मा कुछ दिनों के बाद ही आगरा के स्थापित कलाकार हो गए और उन्होंने संगीत की शिक्षा देने का अद्भुत कार्य किया। उन्होंने आगरा में होने वाली संगीत गोष्ठियों और सम्मेलनों में अपनी महत्वपूर्ण प्रस्तुति दी उन्होंने भी संगीत का प्रचार प्रसार करने के साथ अनेक शिष्य तैयार किए।
शास्त्रीय संगीत के प्रचार प्रसार करने और कलाकारों को पश्चें देने का कार्य संगीत सम्मेलनों के माध्यम से पंडित भातखंडे जी ने शुरू किया था और इसी परंपरा का पालन करते हुए पंडित गोपाल लक्ष्मण गुने जी और रघुनाथ तलेगांव कर जीने भारतीय संगीतालय और संगीत कला केंद्र के माध्यम से फैयाज का संगीत सम्मेलन और पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर संगीत सम्मेलनों की शुरुआत की। यह सम्मेलन सारी सारी रात चला करते थे और इसमें संगीत के श्रोता सारी रात जागकर शास्त्रीय संगीत सुना करते थे। सम्मेलन मैं स्थानीय कलाकारों के अतिरिक्त बाहर से अनेक प्रसिद्ध कलाकार अपनी प्रस्तुति देते थे और उनका गायन सुनने के लिए काफी संख्या में संगीत प्रेमी उपस्थित हुआ करते थे।
आगरा में हनुमान संगीत सम्मेलन करवाने का कार्य पंडित रघुवीर प्रसाद भरद्वाज जी ने किया। वे पंडित श्रीनिवासन आचार्य जी के शिष्य थे। इस सम्मेलन में कलाकार भाग लिया करते थे और स्वयं मैंने यहां पर अनेक प्रख्यात कलाकारों का कार्यक्रम देखा था। यह तीन सभी सम्मेलन लगातार आगरा में पिछले 75 सालों से आयोजित किए जा रहे हैं। इसलिए संगीत के प्रचार प्रसार में इन सम्मेलनों का और इन्हें आयोजित करने वाली संस्थाओं का अभूतपूर्व योगदान कहा जा सकता है
आगरा में संगीत सम्मेलन कराने की परंपरा रही है और समय-समय पर यहां पर संगीत सम्मेलन होती रहे हैं और यह सम्मेलन संगीत के प्रचार प्रसार में अभूतपूर्व योगदान देते हैं। आगरा में प्रथम संगीत सम्मेलन 1940 में आगरा कॉलेज की गंगाधर शास्त्री भवन में हुआ था। 80 के दशक में आगरा संगीत सम्मेलन की भी शुरुआत हुई थी। आईटीसी संगीत सम्मेलन भी आगरा में हुआ करता था। लेकिन यह सारे सम्मेलन कुछ वर्षों बाद समाप्त हो गए। इसके पीछे अनेक कारण से। एक संगीत सम्मेलन आगरा कलाकार संघ मैं भी करवाया था जिसमें प्रख्यात तबला वादक शांता प्रसाद को सुनने का मौका मिला था।
1980 में आगरा में दयालबाग यूनिवर्सिटी में लड़कियों के लिए m.a. क्लासेस खुल गई इससे संगीत शिक्षण में अद्भुत हलचल देखने को मिली। अब ज्यादातर डिग्री कॉलेजों में संगीत की शिक्षा स्नातकोत्तर तक दी जाने लगी थी इस कारण आगरा में कई कलाकार नियुक्त होकर आए। यह कलाकार भी आगरा के स्थापित कलाकार हो गए और उन्होंने भी संगीत के प्रचार प्रसार में अपना योगदान दीया।
पिछले 10 सालों में आगरा में शास्त्रीय संगीत की शिक्षा देने के लिए अनेक स्कूल खुले और कई अन्य कलाकार भी तैयार हुए हैं जो अपने गुरु जनों की परंपरा का निर्वाह करते हुए संगीत के प्रचार और प्रसार में लगे हुए हैं। जिनमें भारतीय संगीतालय कि गजेंद्र सिंह चौहान का नाम विशेष रुप से उल्लेखनीय है जो अपने गुरु की परंपरा का पालन नियमित रूप से कर रही है।
वर्तमान में अनेक पुराने और नए कलाकार आगरा में संगीत शिक्षा देने और उसका प्रचार प्रसार करने के साथ स्थापित कलाकार हैं उनमें अमिता शर्मा, देवाशीगांगुली,शुभाशीष गांगुली, गजेंद्र सिंह, विलास पालखे,, टी रविंद्र, लवली शर्मा, रेनू जौहरी, रितु तिवारी, सदानंद ब्रह्मभट्ट, मुरली मनोहर तिवारी, संदीप शर्मा,, नीलू शर्मा, भानु प्रताप सिंह, लीना परमार, अमन सहगल, राहुल निवेरिया, प्रदीप शर्मा, राधेलाल, राजेश्वर कपूर के नामों का उल्लेख किया जा सकता है।
संगीत का प्रचार प्रसार करने और उसे आम व्यक्ति तक पहुंचाने का जो संकल्प यहां आगरा के संगीत कलाकारों और संगीत प्रचारको ने देखा था वह अब पूरा होते हुए दिखाई दे रहा है आगरा में शास्त्रीय संगीत की अनेक संस्थाएं खुल गई है जो संगीत प्रचार प्रसार करने में अद्भुत योगदान दे रही है।
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