हथौड़ा

बचपन मे मुझे हथोड़ी से बड़ा प्यार था। हमेश उसे अपने साथ रखता था। कील ठोकते हुए जोआखिरी चोट होती थी -खटाक  ख़ट-- वो मुझे इतनी सम्मोहि कर देती थी कि में  इस आवाज को सुनने के लिये बेचैन हो जाता। अक्सर मे  कील की तलाश में    रहता ताकि उसे ठोक सकू। हथोड़ी के प्रति मेरे  इस प्रेम को देखकर अन्ना  ने मुझे पेटी  ठोकने का काम सोप दिया।में  इस काम से बड़ा ही प्रसन्न रहता था और हथोडी  के प्रति मेरा अटूट विश्वाश बढ़ता ही चला गया। मेरे  ही पड़ोसमें  दिनेश जी रहते थे। हमारे पडोसी शर्मा जी के सुपुत्र। मैरे बाल  सखा। हमारे ही  हम उम्र। हम लोग एक ही स्कूल में  पड़ते थे। एक साथ ही आते जाते थे। हम ही क्या मोहल्ले  के बहुत सारे लड़के उसी स्कूल में  पड़ते थे। उस जमानेमें  हर घरमें  ही आधा दर्जन बच्चे हुआ करते थे। शाम होती तो पूरी फुटबॉल टीम तैयार हो जाती। दिनेश जी को अपने घूसे पर बहुत विश्वाश था। अक्सर वे अपने घुसा शक्ति का प्रदर्शन करते रहते थे। रामलीला के दिनों में  राजू जी रामलीला करते थे। वे हम सबको वानर सेना में  रखते थे। हमारे घर के पास एक पक्की दीवार थी। राजू जी उसे  रावण बताते हुए उस पर प्रहार करने का आदेश देते। बस सेना चिपट जाती लेकि जब चोट लगती तो सब ठंडे पद जाते। बस दिनेश जी पीछे नहीं हटते। डे डे डे बस प्रहार करते  जाते। हम सब आश्चर्य करते मगर राजू जी कहते यह तो हमारा  हनुमान है। एकदिन  दिनेश जी की अम्मा ने देख लिया तो राजू जी की ऐसी  फटकार लगाई कि रामलीला करना भूल गये। हमारे मकान  के आगे बहुत बड़ा आगन था।  आगन  को घेरते  हुए बाउंडीवाल थी जिसे  हम डंडा कहते थे। डंडे के पार  बहुत बड़ा खेल का मैदान था। शाम होते ही हम लोग वहाँ फुटबॉल खेलते थे। फुटबॉल इसलिये की एक बाल  के साथ दो दर्जन बच्चे खेल सकते थे। फुटबॉल के पीछे खूब दौड़ लगाते  थे।  अंधेरा होते होते खूब थक जाते तो खेल ख़त्म हो जाता तो फिर डंडे पर बैठकर गप  शप लगाते। गप शप का यह दौर  तब ख़तम होता जब  पत्थर कोयले की अंगीठी धुआँ उगलना बंद कर देती  और सब्जी छोंकने की आवाज आती। हमे तब बड़ी जोर की भूख लगने लगती और फिर हम लोग उठते हाथ मुँह धोते और रसोई में  पट्टा बिछाकर बैठ जाते। धीरे धीरे आधा दर्जन पट्टे बिछ जाते। अम्मा सबकी थाली लगाती और फिर नंबर से रोटी मिलनी शरू हो जाती। पेट भर जाता तो फुदक कर फिर आँगन में  आ जाते और डंडे पर बैठा कर बाते चालू हो जाती। हमारे   आँगन  में  एक बहुत बड़ा पीपल का पेड़  था। बहुत विशाल बहुत पुराना । सवेरे सवेरे वहाँ  तरह तरह की चिड़िया तोते आया करते। अक्सर बंदरो का झुण्ड भी उधम मचाया करता।   यदा कदा कोई लंगूर आ जाता तो फिर बंदरो का चिल्लाना सुनकर हम अंदर भाग जाते। पीपल के बराबर में ही गूलर का पेड़ था उसके गूलर स्वदिष्ट होते थे। अक्सर हम लोग गूलर पर चढ़कर गूलर तोडा करते थे। जहा गूलर का पेड़ था उसी के नीचे डंडे पर बैठकर रात  हम लोग  ग प  शप करते। ज्यादातर भूत के किस्से होते। सुनते सुनते हमें  डर भी लगता तो हनुमान जी को याद  करते। पीपल के पेड़ पर भूत की बात सुनकर और ज्यादा डर लगता फिर भी किस्सों में  बड़ा आनंद आता। हमारी यह गोष्ढी आखिर तब समाप्त होती जब दिनेश जी की अम्मा बाहर आती और आवाज लगाती -चलो अंदर। बचपन के दिन आराम से गुजर रहे थे कि एक दिन  खेलते खेलते हुए दिनेश जी से लड़ाई हो गयी और दिनेश जी ने अपनी घुसा शक्ति का प्रहार कर दिय।  मेने भी हथोड़ी निकाली  और खटक खत चला दी। मेरे प्रहार से दिनेश जी घबरा गये और चिल्लाते हुए भाग गए । में  भी घबरा गया। सोच आज तो जबरदस्त पिटाई  होगी। मुझे कुछ न सुझा तो में  चुपके से गूलर के पेड़ पर  चढ़ गया और पत्तो में  जा कर छुप गया। बाकि बच्चो ने हल्ला मचा  दिया की छन्नू ने दिनेश जी को हथोड़ी मार  दी। देखते ही देखते पूरे मोहल्ले में हल्ला मच गया। में  सास रोके छुपकर बैठा था की आगे क्या होगा।डर लग रहा था किआज तो खेर नहीं।  मगरएसा कुछ नहीं   हुआ। थोड़ी देर में दिनेशजी निकल  आये और खेलने लगे. लेकिन अब मेरी  खोज होने लगी की छन्नू कहाँ गया। काफी देर हो गयी तो सब परेशान हो गये। हमारे अम्मा एना तो परेशन थे ही दिनेश जी की अम्मा भी परेशान हो गयी। कही लड़के ने कुछ कर न लिया हो। अब सब मिलकर आवाज देने लगे -बेटा कहा हो आ जाओ कोई कुछ नहीं कहेगा। ऐसी  आवाज सुनकर आखिर मेरा सब्र टूट गया और में फूटफूट  कर रोने लगा। फिर क्या था बच्चो ने बता दिया वो देखो गूलर पर बैठा है। मुझे नीचे उतरा गया और फि मिठाई खिला कर ताकीद किया  -आइंदा एसा  किया तो टांग तोड़ दी जायेगी। मेरी  हथोड़ी छीन  ली गयी और कहा अब इसे छूना  भी नहीं। सच्ची बात तो यह थी कि में बुरी तरह डर गया था.   और फिर मेने  हथोड़ी की तरफ देखा भी नहीं। इस बात को साठ साल हो गये है। इस बीच दिनेश जी से कभी मिला भी नहीं। मुझे यह भी नहीं मालूम की वे कहाँ  है और किस हाल में हे।  है। मेरा उनसे किसी प्रकार का संपर्क भी नहीं रहा। मगर आप पूछ सकते है कि  आखिर  आज दिनेश जी को याद करने की वजह। वजह सिर्फ इतनी सी है की कल  मुझे बड्डा जी ने बताया  की दिनेश जी की एक  सड़क दुर्घटना मे मृत्य हो गयी।सुनकर मुझे धक्का लगा।  दिल के कोने में  उनसे मिलने की एक छोटी सी  उम्मीद थी  वो एक झटके में  टूटकर समाप्त हो गयी.

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