डंडा मास्टर
हमारे घर का आँगन काफी बड़ा था ।उसे छोटा मोटा मैदान ही समझ लीजिए ।हम लोग उसमे किरमिच की गेंद से गेंद बल्ला खेल लेते थे तो कभी बैडमिंटन ।जब कुछ नही होता तो गिल्ली डंडा, खो खो या चुप्पाया लट्टू फिरा लिया करते ।उस जमाने मे बहुत सारे ऐसे ही खेल हुआ करते । जैसी मर्जी होती खेल लेते ।आँगन ने पीपल कस एक विशाल पेड़ था उसकी बगल में गूलर का पेड़ था जिसमे बंदरो का झुंड उधम मचाया करता था ।उसमें लाल लाल गूलर लगते थे जिन्हें हम भी मजे से खाया करते थे ।पीपल के पेड़ पर सवेरे सवेरे जाने कितनी चिड़ियां आती और दिन भर चहकती रहती ।गर्मियों जे दिनों में हम लोगो की चारपाइयाँ आँगन मे ही बिछती थी। शाम होते ही छिड़काव हो जाता और फिर सारी रात खुले आसमान के नीचे चाँद तारो को देखते हुए बीतती ।सवेरे चिड़ियों की चहचहाहट के साथ खुलती ।हम चिड़ियों को देखते रहते और जाने क्या सींचते रहते ।फिर हमें उठा दिया जाता स्कूल जो जाना होता
आँगन के पार एक खेल का मैदान था जिसमे हम फुटबॉल खेला करते ।आँगन के बगल में एक ऊंचा टीला था जिसमे भी बहुत सारे पेड़ थे ।टीले के ऊपर एक खपरैल वाला मकान था जिसमे कोई बंगाली परिवार रहता था । वह गिलोय की बेले भी थी ।राजू जी ने कहा कि इसे तोड़ कर किसी भी पेड़ पर फेज दो तो वह वही सर बढ़ने लगेगी।हमे बड़ी जिज्ञासा होती और हैम बेले तोड़ तोड़ कर पेड़ो पर उछालते रहते और रोज़ जाकर देखते की बढ़ी की नही । टीले पर चढ़ने उतारने पर बड़ा मजा आता था ।जब हमारे डंडा मास्टर आते तो हम दौड़ कर टीले पर चढ़ जाते ।वे हमें पुचकारते रहते और हम उन्हें सताते ।जब अम्मा चिल्लाती तो हम डर के मारे उत्तर आते ।डंडा मास्टर कुछ नही कहते लेकिन उनके डंडे का डर हमेशा लगता था ।मुझे याद नही की कभी उन्होने किसी को डंडा मारा हो लेकिन उनकी सायकिल के पीछे रखा डंडा हमे डराता जरूर था ।टाइल के उस पार पक्की सड़क जाती थी जो चौराहे पर जाकर दूसरी सड़को से जुड़ती थी सड़क कर बगल में एक तिकोना था जिसमे एक बड़ा पीपल का पेड़ था ।वहां बड़ी ठंडक रहती थी ।मोहल्ले के बूढे और निठल्ले लोग अक्सर दरी बिछा कर दोपहर मे जांघिया बनियान में वक्त गुजारा करते थे राह चलते राहगीर भी थोड़ा सुस्ता लिया करते थे । वहां कुछ साधु स्वभाव के लोग पानी का घड़ा और घंटी रख दिया करते थे जिसको प्यास लगे पी ले ।तिकोने में अक्सर बाजीगर मदारी अपना खेल दिखाते थे ।मोहल्ले में बंदर वाले भालुवाले अक्सट आते थे और खेल दिखाते ।हर घर से उन्हें आता दाल चवलमिल जाता था और वे बड़े खुश होकर जाते ।हम लोगो को बड़ा मजा आता ।तिकोने में जब मदारी अपनी डुगडुगी बजाते तो हम दौड़ कर खेल देखने पहुँच जाते । थोड़ी देर में बहुत सारे लोग इकट्ठे हो जाते ।खेल चालू हो जाता ओर फिर ढेर सारे जादू देखने को मिलते । मदर के खेल में एक जमूरा भी होता ।मदारी और जमूरे के बीच खूब मजेदार बाते होती । खेल में आखिरी ने मदारी जमूरे का सिर काट देता और चादर से ढके जमूरे का सिर अलग कर देता ।खून से सने चाकू दिखा कर लोगो से कहता -बाबू में यह सब पापी पेट के लिए करता हूँ और फिर डुगडुगी बजा कर चक्कर काटता और लोग उसे पैसा देते ।हमारे पास यदि छेद वाला पैसा होता तो हम भी डाल देते ।जमूरा फिर जिंदा हो जाता और फिर मदारी कहता -यहां बहुत दानी लोग है तुझे दूध पीने को पैसा देंगे ।जमूरा चक्कर काटता और लोग उसे भी पैसा देते
खेल खत्म हो जाता और लोग चले जाते ।हैं लोग वहीँ खड़े रहते और मदारी को देखते रहते ।मदारी और जमूरा अपने पैसे गिनते और फिर कहते आज तो खेल सही रहा ।पता नही इस तिकोने में कितने खेल देखे ।कभी कुत्ते वाले बाबा खेल दिखाते ।कुत्ता राम राम बोलता तो कभी सांप नेवले वाले दोनों की लड़ाई दिखाते ।बैल का खेल भी खूब देखा बैल लोगो का भविष्य बताता तो नटो के करतब तो हैरतअंगेज होते ।
यह सब बचपन की बाते थी ।60 साल हो गए ।वक्त के साथ सब कुछ बदल गया ।पुराना मकान बदल गया ।टीले को काट कर एक सरकारी बिल्डिंग बन गयी है ।गूलर का पेड़ अब नही है किसी ने कटवा दिया ।आँगन अब बचा नही ।तिकोने के एक तरफ हनुमानजी का मंदिर बन गया है दूसरी तरफ मिठाई वालो फूल वालो ने अपनी दुकान बना लिया है ।अब वहाँ मदारी नही आते ।मोहल्ले के फालतू लोग अब अपने घरों में रहते हैं । पीपल के पेड़ पर अब चिडिया नही आती ।घंटो का शोर और लोगो की भीड़ बढ़ गयी है अलबत्ता आँगन वाला पीपल अभी भी खड़ा हुआ है और वहां पहले की तरह चिड़िया भी आती है और बंदरो का झुंड भी ।
कभी उधर से जाना होता है तो पाँव अपने आप रुक जाते है ।बचपन याद आ जाता है । पुरानी यादें फ़िल्म की तरह चलने लगती है ।बेटा टोकता है -,यह क्या पाप ऐसे क्यो अटक गए ।चलो देर हो रही । में उससे कुछ नही कहता बस मुस्कुरा देता हूँ ।उसे क्या मालूम कि मुझे क्या याद आया है ।

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