कविता ...मेरा बचपन
यह कविता डॉ बिजेंद्र सिंह की लिख हुई है जो मुझे बेहद पसंद है ।उन्होंने अपने बचपन का यतार्थ चित्रण किया है
कहाँ गये वो दिन
लंबा चौड़ा आँगन मिट्टी का घरोंदा,
गोबर , पीली मिट्टी को गलाकर
तरे हाथों से लिपा हुआ, चौकों से पुरा हुआ सौंधी गंध वाला चबूतरा कहाँ गया।
फटी पीली बेला में,मधुर संगीत और चाकी की लय,
अनाज के दानों को मरोड़ कर आटा बनाती चाकी के पाटों की ताल।
लंबी मथानी से मिट्टी के पसन्ने में
उढेली हुई धौनी का दही,
लचक लचक कर चोट देती बधूटी,अधविलोई छाछ पर मडराता मक्खन। छपक छपक कर उछाल उछाल कर अंजलि में नाचते लोंदे।
दही से लौनी और लौनी से घी
तचते हुए घी की सुंगध।
बथुए को सिल पर पीस कर ,छाछ में मसल कर, उपले के सुलगते अंगारे पर हींग जीरा और सरसों के तेल के छींटों का धुँगार ऊपर से काले नमक का तड़का। वह कहाँ गया बथुए का रायता।
मिट्टी के तौले में खदकी छाछ की गरम गरम महेरी तिस पर गुड़ और दूध की धार, थाली को दोनों हाथों से जकड़ कर सुड़ुड़-सुड़ुड़ कर पीने का अहसास।
पत्थर के कथौटे में, मचोचा मार कर ईंच-ईंच कर वह लोचदार आटा।
तेरे हाथ की उँगलियों और हथेली के इशारे पर नाचती पनपती।
उपले की आग और मिट्टी के चूल्हे पर,बिछे हुए छन्नाटेदार तवे पर
पसरती पनपती छुन्न होती।
मुसकराकर नीचे उतरती,
उपले के उझीने की दहकती आग के सामने ठूमे के सहारे आहिस्ता, आहिस्ता सोखती आग।
फूलकर गेंद बनती पनपती
वह धूल झड़ाती फटकार, तिस में उढेलता घी पापड़ी फोड़कर।
मिट्टी की हाड़ी की फलौरी वाली कढ़ी, सकौरे का वह जायके दार तड़का जिसमें सुगंधी का अद्भुत संचार।
खाट के झटोले में नींद का वह आनंद।
मिट्टी के घरौंदे मकान में बदल गये, गोबर मिट्टी को संगमरमर ने सोख लिया,
पगडंडी रोडों में बदल गयी,
स्वच्छ जल और वातावरण पर कचरे का राज हो गया।
ऊँचे भवनों में, संगमरमरी फर्सों में, गेस की रसोई में, सोफों की गहराई में सब दफन हो गया।
शुरू हो गया शुगर का की अधिपत्य, डाइबिटीज, रक्तचाप, हार्ट अटैक,कैंसर।
पानी पीना तो क्या स्वाँस लेना भी दुस्वार हो गया,
ऐसा लगता है हमारा प्राचीन भारत खो गया।

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