हमारे गुरुजी
हमारे गुरुजी/विजय राघव आचार्य
भारतीय संगीतालय की स्थापना 1944 में की गई थी। विद्यालय की स्थापना का उद्देश्य शास्त्रीय संगीत का प्रचार प्रसार करना और शास्त्रीय संगीत को आम व्यक्ति तक पहुंचाना था। शास्त्रीय संगीत के प्रचार प्रसाद के साथ ही शास्त्रीय संगीत के शिक्षण की उचित और सुलभ व्यवस्था करनी भी इसकी स्थापना का प्रमुख उद्देश था।
भारतीय संगीतालय की स्थापना पंडित गोपाल लक्ष्मण गुणे जी ने की थी। जिन्होंने ग्वालियर के माधव संगीत विद्यालय से शास्त्रीय संगीत की शिक्षा प्राप्त की थी। माधव संगीत विद्यालय में ग्वालियर घराने के मूर्धन्य कलाकार, शास्त्रीय संगीत की शिक्षा दिया करते थे।
माधव संगीत विद्यालय मैं अपनी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा पूरी करने के बाद, उन्हें आगरा के बलवंत राजपूत कॉलेज में, संगीत अध्यापक की नौकरी मिल गई ।तब उन्होंने संगीत प्रचारक बनने ,और आगरा को अपना कार्यक्षेत्र बनाने का निर्णय लिया। तत्पश्चात भारतीय संगीतालय की स्थापना की।
पंडित गोपाल लक्ष्मण गुणे जी का जन्म मध्य प्रदेश के ग्वालियर शहर में हुआ था। घर में संगीत का वातावरण था, उनकेबड़े भाई पंडित नारायण लक्ष्मण गुणे जी बचपन से शास्त्रीय संगीत सीख रहे थे, उनको अभ्यास करते देख उन्हें भी कई बंदिशें याद हो गई, एक दिन जब उन्होंने एक कठिन बंदिश सुनाई ,तो उनके पिताजी आश्चर्यचकित हो गए, उन्हें विश्वास हो गया कि यह बालक भी अच्छा शास्त्रीय गायक वन सकता है। इसलिए उन्होंने पंडित गोपाल लक्ष्मण पुणे जी की भी शास्त्रीय गायन की विधिवत शिक्षा प्रारंभ कर दी ,और इस प्रकार उनकी शास्त्रीय गायक बनने का मार्ग प्रशस्त हो गया।
पंडित गोपाल लक्ष्मण गुणे जी ने विद्यालय की स्थापना के साथ, संगीत के प्रचार और प्रसार के लिए संगीत सम्मेलन, संगीत गोष्टी, संगीत प्रतियोगिता, मल्हार उत्सव, होली उत्सव, बसंत उत्सव, जैसे कार्यक्रमों का आयोजन भी आरंभ किया। उनका मानना था इस प्रकार के आयोजन, विद्यार्थियों को मंच योग्य बनाने और शास्त्रीय संगीत को आम लोगों तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
पंडित गोपाल लक्ष्मण गुणे जी अपने साथी कलाकारों का बहुत सम्मान करते थे। अवसर मिलने पर उन्हें विद्यालय में आमंत्रित किया करते थे। विद्यालय का वातावरण शास्त्रीय संगीत के अनुकूल बनाने के लिए ,वे हर संभव प्रयास किया करते थे।
पंडित गोपाल लक्ष्मण गुणे जी , शास्त्रीय संगीत के प्रति पूर्ण रुप से समर्पित थे।उन्होंने कठोर संकल्प के साथ ,विद्यालय की स्थापना की,और शास्त्रीय संगीत के प्रचार प्रसार और शिक्षा के लिए ,अपना सारा जीवन समर्पित कर दिया
पंडित गोपाल लक्ष्मण गुणे जी शास्त्रीय संगीत के विद्वान कलाकार और शिक्षक थे । उनका 200 रागों पर पूर्ण अधिकार था, और वे किसी भी समय बिना तैयारी के गा सकते थे । उन्हें शास्त्रीय संगीत के अलावा और कुछ पसंद नहीं था। खाली समय में संगीत की पुस्तकें पढ़ा करते थे।
गुरुजी बड़ी निष्ठा और इमानदारी के साथ शास्त्रीय संगीत की शिक्षा दिया करते थे। ।उनके मन में छल कपट और लोभ लालच बिल्कुल नहीं था। शास्त्रीय संगीत की शिक्षा लेने वाले विद्यार्थियों की परिस्थितियों और क्षमता का पूरा ध्यान रखते थे। गुरुजी उन्हें कभी निराश नहीं करते थे।
गुरुजी का कहना था, शास्त्रीय संगीत सीखने वाले विद्यार्थी भले ही कलाकार नहीं बन पाए लेकिन वे शास्त्रीय संगीत को समझने वाले अच्छे श्रोता तो वन ही सकते हैं। उनका मानना था शास्त्रीय संगीत के प्रचार प्रसार में ऐसे श्रोताओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
।पंडित गोपाल लक्ष्मण गुणे जी, आगरा घराने के उस्ताद फैयाज खां का बहुत सम्मान करते थे, और उनके प्रशंसक थे। वे उनकी गायकी से प्रभावित थे। इसलिए शास्त्रीय संगीत का प्रचार प्रसार करने के लिए, जब संगीत सम्मेलन का आयोजन आरंभ किया, तो उसे उस्ताद फैयाज खा को समर्पित कर दिया।
पंडित गोपाल लक्ष्मण गुणे जी, गुरु शिष्य परंपरा में विश्वास रखते थे। वे अपने गुरुजनों का बहुत सम्मान करते थे। उनका मानना था, गुरु के चरणों मैं बैठकर ही शास्त्रीय संगीत सीखा जा सकता है। गुरु के आशीर्वाद से संगीत ज्ञान प्राप्त होता है। इसलिए 50 वर्ष फैयाज खा संगीत सम्मेलन आयोजित करने के बाद, गुरुवर संगीत सम्मेलन की शुरुआत की, जिसे उन्होंने अपने गुरुजनों को समर्पित किया।
विद्यालय की स्थापना के साथ ही उन्होंने यह संकल्प भी लिया की वे संगीत की ट्यूशन नहीं करेंगे और इसका पालन उन्होंने जीवन भर किया । उनके जीवन में कई बार ऐसे मौके आये जब उन्हें ट्यूशन करने का प्रलोभन दिया गया। लेकिन उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया।
एक बार एक धनाढ्य व्यक्ति ने उनसे प्रार्थना कि वे उनके बच्चों की ट्यूशन करें। इन्हें मुंह मांगी फीस देने का बात कहीं और यह भी कहा उनकी आने और जाने के लिए कार की व्यवस्था भी कर देंगे। लेकिन गुरु जी ने इसे स्वीकार नहीं किया और का मैंने विद्यालय की स्थापना की है आप अपने बच्चों को वही दाखिल कराएं।
इस पर उस व्यक्ति ने रुपयों से भरा बैग उनके सामने फेंक दिया और वहां से चला गया। गुरुजी उसे आवाज देते रह गए और वह फुर्र उड़ गया।
तब गुरुजी परेशान हो गए और उन्होंने अपने एक शिष्य को बुलाया और कहां मेरे साथ चलो। शिष्य के साथ मोटरसाइकिल में बैठकर वह उस व्यक्ति के घर गए और उसे बैग सौंपते हुए विनम्र भाव से कहा मैं पैसों के लिए संगीत नहीं सिखाता हूं। मेरे संगीत का उद्देश्य संगीत का प्रचार प्रसार करना है इसलिए मैं विद्यालय के प्रति पूरी तरह समर्पित हूं ।वह व्यक्ति लज्जित हुआ और उसने गुरुजी से क्षमा मांगी और कहा मैं शर्मिंदा हूं
गुरुजी आगरा घराने के उस्ताद फैयाज खां साहब से बहुत प्रभावित थे । वे उनकी गायकी और उनकी स्वभाव कि हमेशा चर्चा किया करते थे। विद्यालय के तत्वावधान में उनका एक कार्यक्रम भी हुआ था। जो हमेशा उन्हें याद रहा। संगीत के प्रचार और प्रसार के लिए उन्होंने जब संगीत सम्मेलन का आयोजन प्रारंभ किया तो उसे सबसे पहले उस्ताद फैयाज खां को समर्पित किया और इस संगीत सम्मेलन को उस्ताद फैयाज खा संगीत सम्मेलन नाम दिया
गुरुजी संगीत के शिक्षण में गुरु शिष्य परंपरा को महत्व देते थे इसलिए उन्होंने विद्यालय की स्थापना के साथ शिक्षण में गुरु शिष्य परंपरा को बनाए रखा।
विद्यालय में संगीत की शिक्षा देने का कार्य गुरु शिष्य परंपरा के अनुसार चलता है।
गुरुजी कहां करते थे गुरु के बिना ज्ञान प्राप्त नहीं होता है। संगीत की शिक्षा केवल गुरु मुख से ही प्राप्त होती है। इसलिए शिष्य को हमेशा गुरु का सम्मान करना चाहिए और शिष्य भाव से ज्ञान ग्रहण करना चाहिए।
गुरु जी को शिक्षक का अपमान बिल्कुल सहन नहीं होता था और ऐसे शिष्यों को फटकार भी लगा देते थे। गुरु पूर्णिमा के अवसर पर विद्यालय में उत्सव मनाया जाता था और गुरु के सम्मान के साथ प्रत्येक विद्यार्थियों को अपनी हाजिरी भी लगानी पढ़ती थी।
गुरुजी कलाकार थे और एक शिक्षके भी । वास्तव में उनके व्यक्तित्व में कलाकार और शिक्षक का समन्वय था। अपने आप को संगीत प्रचारक और शिक्षक मानते थे, उन्होंने कलाकार को आपने व्यक्तित्व में हावी नहीं होने दिया और शिक्षक ही बनी रहे। तत्कालीन परिस्थिति कुछ ऐसी थी कि हमारी शास्त्रीय संगीत की परंपरा खत्म होती जा रही थी। गुरुजी चाहते कि शास्त्रीय संगीत की परंपरा जीवित बनी रहे। राजा रजवाडे समाप्त होने के कारण संगीतकारों के समक्ष रोजी रोटी की समस्या उत्पन्न होने लगी थी। आगरा जो संगीतकारों का गढ़ माना जाता था अब संगीतकारों से वीरान होने लगा था। लोग संगीत से दूर भागने लगे थी और शिक्षण की कोई व्यवस्था नहीं थी। कैसी समय में पंडित जी ने शास्त्रीय संगीत का प्रचार प्रसार करने के लिए विद्यालय की स्थापना की और अपना संपूर्ण जीवन संगीत के प्रचार प्रसार और शिक्षण के लिए समर्पित कर दिया ।
गुरुजी बड़ी निष्ठा लगन और ईमानदारी के साथ संगीत की शिक्षा दिया करते थे। वे चाहते थी कि उनके विद्यार्थियों को भरपूर ज्ञान मिले और संगीत के क्षेत्र में तरक्की करें। वे अपने विद्यार्थियों की अच्छी प्रदर्शन की हमेशा तारीफ किया करते थे। वे उनकी तरक्की देखकर बड़े प्रसन्न हुआ करते थे। वे अपने विद्यार्थियों की प्रतिभा को बड़े ध्यान से देखते थे। अगर कोई छोटा सा विद्यार्थी भी अपनी प्रस्तुति देता था तो उसे वे बड़े ध्यान से सुनते थे। यह उनकी विशेषता थी वरना बहुत कम लोग ऐसी होती हैं जो ध्यान से विद्यार्थियों को सुनते है।
गुरुजी अपने विद्यार्थियों को ज्ञान देने में कोई कंजूसी नहीं करते थे। वे चाहती थी विद्यार्थियों को भरपूर ज्ञान प्राप्त हो। इसका एक उदाहरण हमारे सामने आया है। विद्यालय का एक विद्यार्थी जब आईटीसी कोलकाता में प्रशिक्षण लेने गया तो वहां प्रख्यात गायक अजय चक्रवर्ती ने उनसे कुछ कठिन सवाल पूछिए जिसका उसने सटीक और विस्तृत जवाब दिया। इस पर अजय चक्रवर्ती आश्चर्यचकित हो गई और पूछा यह जानकारी तुम्हें कहां से मिली। इस पर विद्यार्थी ने कहा यह जानकारी दो हमारी गुरुजी ने हमें पहली कक्षा में दे दी थी।। इसका परिणाम यह हुआ कि जब अजय चक्रवर्ती आगरा आए तो सपरिवार गुरु जी से मिलने उनके घर पहुंचे। यह एक विशेष बात थी।
पंडित गोपाल लक्ष्मण गुणे जी ने 29 जनवरी 2003 को, इस नश्वर संसार से विदा ले ली ,और अपने लोक मैं चले गए। उनके जाने से आगरा के संगीत संसार में जो स्थान रित हुआ, उसकी पूर्ति सहज संभव नहीं है।पंडित गोपाल लक्ष्मण गुणे जी ने आगरा में शास्त्रीय संगीत के प्रचार प्रसार और उसके उन्नयन जो योगदान दिया, उसे कभी भूला नहीं जा सकता है।

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